अन्तोन चेख़व की महान कथायें
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रूस के महानतम लेखकों में गिने जाने वाले अन्तोन चेख़व का जन्म १७ जुलाई, १८६०, को तगाणरोग में हुआ था। उनके दादा जी एक राजकीय सेवक थे। उनके पिताजी ने एक व्यापारी की बेटी से शादी की थी और तगाणरोग में स्थायी रूप से रहने लगे थे, जहां, चेखव के बाल्यकाल में उन्होने एक छोटा सा जरूरी सामान का व्यापार शुरू किया पर सफल नहीं हुए।
युवा चेखव को भी बाध्य होकर गरीबी में पढ़ चुकी बड़े परिवार की सेवा में लग जाना पड़ा, और इसके बारे में उन्होने अपने बाद के वर्षों में बहुत दुख पूर्वक लिखा और कहा की उनके बाल्यकाल में उनको बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ा था।
कठिनाइयों में रहते हुए भी वो आग्याकारी और बहुत अच्छे स्वभाव के थे और अपने पिताजी की दुकान में खुशी खुशी काम किया करते थे। वो वहन एकत्रित होने वाले आलसी और काम ना करने वाले लोगों को ध्यान से देखते थे और उनकी बातों को और उनकी नीरस कथाओं को सुनते थे। वो बाद में उन कथाओं को और उन काम ना करने वाले लोगों की बातें मंद स्वर में अपने पाठशाला के साथियों को सुनाते थे जो उनकी बातें सुनकर हंसते थे। उनको कई बार अपने इस व्यवहार के लिये कक्षा में बहुत बार सजा भी मिलती थी। ये उनकी आदत बन चुकी थी और उसको ठीक नहीं किया जा सकता था।
इस पुस्तक में हम इस महान लेखक की कुछ सबसे यादगार कथाओं का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं।
स्टूडेंट अकैडमी
राजा शर्मा
अन्तोन चेख़व की महान कथायें
Copyright
अन्तोन चेख़व के बारे में
शर्त
रंग बदालता जीव
अनोखा प्रेम प्रसंग
सुखद अंत
मात्र व्यंग में
दुर्बल
ग्रीषा
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अन्तोन चेख़व की महान कथायें
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अन्तोन चेख़व के बारे में
रूस के महानतम लेखकों में गिने जाने वाले अन्तोन चेख़व का जन्म १७ जुलाई, १८६०, को तगाणरोग में हुआ था। उनके दादा जी एक राजकीय सेवक थे। उनके पिताजी ने एक व्यापारी की बेटी से शादी की थी और तगाणरोग में स्थायी रूप से रहने लगे थे, जहां, चेखव के बाल्यकाल में उन्होने एक छोटा सा जरूरी सामान का व्यापार शुरू किया पर सफल नहीं हुए।
युवा चेखव को भी बाध्य होकर गरीबी में पढ़ चुकी बड़े परिवार की सेवा में लग जाना पड़ा, और इसके बारे में उन्होने अपने बाद के वर्षों में बहुत दुख पूर्वक लिखा और कहा की उनके बाल्यकाल में उनको बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ा था।
कठिनाइयों में रहते हुए भी वो आग्याकारी और बहुत अच्छे स्वभाव के थे और अपने पिताजी की दुकान में खुशी खुशी काम किया करते थे। वो वहन एकत्रित होने वाले आलसी और काम ना करने वाले लोगों को ध्यान से देखते थे और उनकी बातों को और उनकी नीरस कथाओं को सुनते थे। वो बाद में उन कथाओं को और उन काम ना करने वाले लोगों की बातें मंद स्वर में अपने पाठशाला के साथियों को सुनाते थे जो उनकी बातें सुनकर हंसते थे। उनको कई बार अपने इस व्यवहार के लिये कक्षा में बहुत बार सजा भी मिलती थी। ये उनकी आदत बन चुकी थी और उसको ठीक नहीं किया जा सकता था।
उनके दादा अब तक तगाणरोग के पास एक स्टेट के मॅनेजर बन चुके थे, और बालक चेख़ोव अपना गर्मियों का समय उनके साथ बिताने लगे। वो नदी में मछलियाँ पकड़ते थे, ग्रामीण इलाके में खूब घूमते थे और इसी दौरान उन्होने प्रकृति को बहुत नजदीक से देखा और ये प्रकृति प्रेम पूरे जीवन उनके साथ रहा। शाम को वो अपना अधिकांश समय स्टेट के मालिक की रसोई में वहां काम करने वाले लोगों और किसानो के साथ बिताते थे। वो उनके साथ खेलते थे, और अपनी बातों से उनको खूब हंसाते थे।
जब चेख़ोव लगभग चौदह बरस के थे, उनके पिता परिवार को लेकर मॉस्को चले गये। अब चेख़ोव को दुकान में काम नहीं करना पड़ता था। वो स्कूल जाने लगे और खूब मन लगा कर पढ़ने लगे। मात्र सत्रह बरस की उमर में उन्होनें एक लम्बा दुखान्त नाटक लिखा। वो नाटक बाद में खो गया पर उस द्वारा उन्होने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन तो कर ही दिया था।
चेख़ोव ने हाई स्कूल की परीक्षा बहुत अच्छे अंकों से पास की और उसके बाद मॉस्को विश्वविद्यालय में औषधिविज्ञान के अध्ययन के लिये दाखिला लिया। अब वो अपनी पढ़ाई और एक लेखक के रूप में लिखने का काम दोनो ही खूब मन लगा कर करने लगे। वो चाहते थे की किसी तरह वो अपने परिवार को आर्थिक सहयोग कर सकें।
चेख़ोव की लिखी हुई पहली लघु कथा मॉस्को के समाचारपत्र में १८८० में प्रकाशित हुई, और उसके बाद खूब मेहनत करके उन्होने कुछ सामयिक पत्रिकाओं में भी काम प्राप्त कर लिया और दिन रात कथायें और लेख लिखने लगे। वो अधिकांशतः रूस के जीवन के बारे में बहुत ही चमत्कारी गति से लिखने लगे।
चेकॉव के कथन अनुसार वो एक मिनिट भी व्यर्थ नहीं करते थे और प्रतिदिन एक कथा तो लिख ही लेते थे। इसी दौरान उन्होने एक ऐसा नाटक लिखा जिसपर रोक लगा दी गयी और फिर वो कभी भी प्रकाशित नहीं हुआ।
चेख़ोव के पाठक और उनके नाटकों के दर्शक उनसे व्यंग और हास्य की अपेक्षा करते थे और चेख़ोव को बस यही तो चाहिये था। उनकी कथायें वैसे तो दुख के विषय पर लिखी होती हैं पर वो अपनी कथाओं के माध्यम से व्यवस्था और समाज पर कटाक्ष करना नहीं भूलते थे। उनकी पहचान एक सफल व्यंगकार के रूप में होने लगी। उनके चेहरे पर यूं तो हमेशा ही एक मुस्कान होती थी, परंतु वो मुस्कान बहुत की नाजुक होती थी, और दुख में पड़े हुए लोगों के प्रति उनकी सहानुभूति उनके व्यंग को हमेशा आँसुओं के करीब ले आती थी।
वैसे तो उनकी लिखने की शैली की बहुत आलोचना भी होती थी और स्थापित लेखक और आलोचक आरोप